परत दर परत खुल रहे है,
दीवारों के जैसे दरक रहे है,
ये तेरे कैसे एहसास है,
क्या हुआ है ज़बान को आज,
क्यों ओठ और मन नहीं मिल रहे है !!
चाहत तो है एक दरिया सा फूटने की,
तफ्सीस से कुछ कहने की, और सुकून से सब सुनने की,
पर मन की गाँठे हैं की खुलती ही नहीं है,
ये कैसी बर्फ की चट्टानें है जो पिघलती ही नहीं है,
नहीं होता अब वो जुनूनी सफ़र,
देख लेता हूँ वक़्त-ए -नज़ाकत,
तभी तो नकली हंसी भी असली सी हँसता हूँ,
वक्त ही मेहरबां है जो उधड़े से ज़ख्म भी सिल रहे हैं,
क्यों ओठ और मन नहीं मिल रहे है !!
दीवारों के जैसे दरक रहे है,
ये तेरे कैसे एहसास है,
क्या हुआ है ज़बान को आज,
क्यों ओठ और मन नहीं मिल रहे है !!
चाहत तो है एक दरिया सा फूटने की,
तफ्सीस से कुछ कहने की, और सुकून से सब सुनने की,
पर मन की गाँठे हैं की खुलती ही नहीं है,
ये कैसी बर्फ की चट्टानें है जो पिघलती ही नहीं है,
नहीं होता अब वो जुनूनी सफ़र,
देख लेता हूँ वक़्त-ए -नज़ाकत,
तभी तो नकली हंसी भी असली सी हँसता हूँ,
वक्त ही मेहरबां है जो उधड़े से ज़ख्म भी सिल रहे हैं,
क्यों ओठ और मन नहीं मिल रहे है !!